गणतंत्र, तुम्हारा अभिनंदन
तंत्रों की बड़ी विकट जकड़न
बने विधान यहां उलझन
सुफलों पर नागों का डेरा
आहत होता जन साधारण
पांवों में बेडी¸, हाथ बंधे
गणतंत्र, तुम्हारा अभिनंदन।
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गिरना, उठने की शर्त बनी
झुकना, बढ़ने की रीत बनी
सच्चाई का जीना दुष्कर
मिथ्या की छाया बड़ी घनी
असली सिक्के हैं मूल्यहीन
नकली सिक्कों का है प्रचलन
गणतंत्र, तुम्हारा अभिनंदन।
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रोटी की चाहत पाप बनी
कर्मठता है अभिशाप बनी
जो जोड़तोड़ में रहे निपुण
बन जाते रातोंरात धनी
घोटाले करने वालों का
मंचों पर होता अभिनंदन
गणतंत्र तुम्हारा अभिनंदन।
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गणतंत्र, न तुम संकीर्ण बनो
बंधुआ न बनो, मत हीन बनो
विद्रोही बन विस्तार करो
मत गंदे जल की मीन बनो
आकाश -कुसुम क्यों बनते हो
माटी है माथे का चंदन
गणतंत्र, तुम्हारा अभिनंदन।
– याज्ञवल्क्य