कुछ आपबीती-कुछ जगबीती(10)

साप्ताहिक स्तंभ- याज्ञवल्क्य

निष्काम कर्म
—याज्ञवल्क्य
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
अर्थ: तुम्हारा कर्म करने का अधिकार है, उसके फल में कभी नहीं। तुम स्वयं को अपने कर्मों के फलों का कारण मत मानो और न ही अकर्मा रहने में आसक्ति रखो।

यह भगवद्गीता का अत्यंत प्रसिद्ध श्लोक है और अधिकांश लोग इस श्लोक से परिचित हैं। यह कार्य को निष्काम भाव से करने की अन्तर्दृष्टि प्रदान करता है।

इस श्लोक में कर्मयोग के संबंध में चार उपदेश दिए गए हैं-(1) तुम अपना कर्म करो लेकिन इसके फल की चिन्ता न करो, (2) तुम्हारे कर्म का फल तुम्हारे सुख के लिए नहीं है अर्थात तुम अपने कर्मों के फल के भोक्ता नहीं हो, (3) यहाँ तक कि कर्म करते समय कर्ता होने का अहंकार न करो, (4) अकर्मण्य रहने में आसक्ति न रखो।

अबोधावस्था में अपने पिताश्री पंडित पुरुषोत्तम नारायण याज्ञवल्क्य को उनके पूजा के क्रम में भगवद्गीता का पाठ करते हुए सुनता था। ऐसे ही पूज्य गुरुजी चित्रकूट वालों को देखता सुनता रहता था। अर्थ और भाव तब समझ से परे थे, लेकिन अवचेतन में अनायास ही बहुत कुछ समाता गया, जो मार्गदर्शन करता रहता है। दोनो ही शक्ति और शिव के श्रेष्ठ उपासक थे,किंतु कर्म में पूरा भरोसा था।

जब कुछ समझ आई तो कर्म के प्रति समर्पण आता गया। बार—बार अच्छे कर्मों का प्रत्यक्ष परिणाम नहीं मिला और सांसारिक मापदंडों पर अधिक सफलता भी नहीं मिली, किंतु बिना परिणाम की चिंता किए अनथक कर्म स्वभाव बन गया। लगा कि यह करना चाहिए तो पूर्ण समर्पण के साथ जुट गया और अभी भी जुटा रहता हूं।

अब गीता के इस श्लोक का भाव कुछ—कुछ प्रगट होता जा रहा है। अपने सगे—संबंधियों को रणभूमि में देखकर अर्जुन युद्ध से विमुख होना चाहते हैं। श्रीकृष्ण यहां निष्काम कर्म का उपदेश देते हैं। मनुष्य की स्वतंत्रता नियत कर्म करने तक है। इसके फल पर हमारा नियंत्रण नहीं है। जब हम स्वयं को बिना कर्ता माने हुए नियत कर्म में जुटे रहते हैं तो परिणाम की वास्तव में चिंता नहीं होती।

यदि हम बार—बार परिणाम के बारे में सोचते हैं तो यह हमारी कर्मठता को प्रभावित करता है। जब बिना परिणाम के बारे में सोचे कर्म में जुटे रहते हैं तो कर्म स्वयं आनंद बन जाता है। कर्म करना ही इतना आनंदित करता है कि परिणाम को भूल ही जाते हैं।

मैने सीखा कि जो कुछ भी करो, उसमें स्वयं को पूरी तरह समर्पित कर दो और जो होता है, उसे सहज भाव से स्वीकार करो। यानि कर्म में ही पूरा आनंद उठा लो, फल के आनंद की कामना ही नहीं रहेगी।

प्रबुद्ध नागरिक
एक दौर था, जब वकील, पत्रकार और शिक्षक जैसे कुछ वर्गों को प्रबुद्ध माना जाता था। यह वास्तव में होते भी हैं और समाज को दिशा देने का महत्वपूर्ण दायित्व उठाते हैं। अलग—अलग कारणों से मेरा इनसे मिलना—जुलना होता रहता है। हो सकता है, मुझे कुछ भ्रम हो, लेकिन अब इन वर्गों में प्रबुद्धता की कमी को महसूस करता हूं। अध्ययनशीलता इन वर्गों की पहचान रही है। इसी कारण किसी भी मुद्दे पर इनके विचार गंभीर और तार्किक होते थे, जिन्हे सुनने में बहुत कुछ मिलता था। अब तो कई बार लगता है कि ये भी ग्रंथों के स्थान पर सोशल मीडिया पर उपलब्ध ज्ञान पर अधिक आश्रित होते जा रहे हैं।

कैसे बने अच्छे पत्रकार?
पत्रकारिता हमेशा से मेरा पूर्णकालिक कार्य रहा है। भले ही इस क्षेत्र में झंडे नहीं गाडे, लेकिन कई नए पत्रकार मान लेते हैं कि लगभग चार दशक की पत्रकारिता का इन्हे अनुभव है। यह सही है कि डाक और तार से समाचार भेजने से लेकर पुरानी प्रिटिंग प्रेस के टाइप और मशीनों से निकट का संबंध रहा। भोपाल में अखबार के दफ्तर में कागज पर पेन से डमी बनाने से लेकर कागज पर छापे गए पेज की प्रूफ रीडिंग निश्चित चिन्हों के साथ की है। फिर फैक्स की सुविधा हुई और अब कंप्यूटर—मोबाइल—इंटरनेट के साथ पत्रकारिता करने का अवसर मिला है। लोग पूछते हैं कि अच्छे पत्रकार कैसे बनें? कहना चाहूंगा कि जिज्ञासु बनें। प्रत्येक विषय पर पढने की आदत बनाएं और अलग—अलग क्षेत्रों के विशेषज्ञों के बीच समय बिताकर उस क्षेत्र विशेष की समझ हासिल करें। पत्रकारिता निरंतर सीखते रहने का क्षेत्र है। स्वयं को लगातार नई तकनीक और जानकारियों से अद्यतन करते रहें।