इलाहाबाद उच्च न्यायालय— केवल शादी के लिए धर्म परिवर्तन वैध नहीं

प्रयागराज। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने केवल शादी के लिए धर्म परिवर्तन वैध नहीं माना। न्यायालय ने पुलिस सुरक्षा की मांग को लेकर एक शादीशुदा जोड़े की ओर से दायर रिट याचिका खारिज कर दी है। न्यायालय ने ऐसा तब किया जब उसे पता चला कि लड़की जन्म से मुस्लिम थी, लेकिन शादी होने से एक माह पहले उसने अपना धर्म परिवर्तन किया था। न्यायमूर्ति महेश चंद्र त्रिपाठी ने कहा कि इससे स्पष्ट होता है कि धर्मांतरण केवल शादी के उद्देश्य से किया गया था। यह आदेश न्यायमूर्ति ने प्रियांशी उर्फ समरीन और अन्य की याचिका पर दिया है।

न्यायाधीश ने ‘नूर जहां बेगम उर्फ अंजलि मिश्रा एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश सरकार एवं अन्य’ के मामले में 2014 में दिये गये एक फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि केवल शादी के उद्देश्य से धर्म परिवर्तन करना अस्वीकार्य है। ‘नूर जहां बेगम’ मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उन रिट याचिकाओं को खारिज कर दिया था जिनमें शादीशुदा जोड़े को संरक्षण देने का अनुरोध किया गया था। याचिकाओं में कहा गया था कि लड़की ने हिन्दू धर्म छोड़कर मुस्लिम धर्म अपनाया था और उसके बाद निकाह किया था। संबंधित मामले में इस मुद्दे पर विचार किया गया था कि “इस्लाम की जानकारी के बगैर या उसमें भरोसा हुए बिना महज शादी (निकाह) के लिए क्या मुस्लिम लड़के के इशारे पर हिन्दू लड़की का धर्म परिवर्तन वैध है?” इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस सवाल का जवाब ‘ना’ में देते हुए तथा ‘लिली थॉमस बनाम केंद्र सरकार’ के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के रुख को दोहराते हुए कहा— “एक व्यक्ति का अपना धर्म छोड़कर इस्लाम धर्म अपनाना तभी प्रमाणिक कहा जा सकता है यदि वह वयस्क हो, मानसिक तौर पर स्वस्थ हो तथा उसने इस्लाम को अपनी इच्छा से अपनाया हो एवं उसे अल्लाह के एकात्मवाद और पैगम्बर मोहम्मद के करिश्माई व्यक्तित्व में भरोसा एवं विश्वास हो। यदि धर्मांतरण धार्मिक भावनाओं से प्रेरित न हो और अपने फायदे के लिए किया गया हो, यदि यह धर्मांतरण किसी अधिकार के दावे का आधार बनाने या अल्लाह के एकात्मवाद या पैगम्बर मोहम्मद पर भरोसा किये बिना शादी से बचने के उद्देश्य से किया गया हो, तो यह धर्म परिवर्तन प्रामाणिक नहीं माना जायेगा। धर्म परिवर्तन के मामले में मूल धर्म की रीति-नीतियों के बदले नये धर्म की रीति-नीतियों के प्रति हृदय परिवर्तन होना और ईमानदार आस्था का होना जरूरी है।”

उच्च न्यायालय ने दिया यह तर्क
सवाल था कि क्या हिंदू लड़की धर्म बदलकर मुस्लिम लड़के से शादी कर सकती है और यह शादी वैध होगी। कुरान की हदीस का हवाला देते हुए न्यायालय ने कहा कि इस्लाम के बारे में बिना जाने और बिना आस्था और विश्वास के केवल शादी करने के उद्देश्य से धर्म बदलना स्वीकार्य नहीं है। यह इस्लाम के खिलाफ है। इसी फैसले के हवाले से उच्च न्यायालय ने मुस्लिम से हिंदू बनकर शादी करने वाली याचिकाकर्ता को राहत देने से इनकार कर दिया है।

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