हमारे गांव— तब और अब, लेकिन अब भी यह करें

डॉ ओपी चौधरी
एसोसिएट प्रोफेसर, मनोविज्ञान विभाग
श्री अग्रसेन कन्या पीजी कॉलेज, वाराणसी
मो:9415694678

जिसकी रज में लोट- लोटकर बड़े हुए हैं,
घुटनों के बल सरक- सरककर खड़े हुए हैं।
प्रकाश सम बाल्यकाल में सब सुख पाए,
जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाए।

हमारे गांव हमारी संस्कृति, सभ्यता, रीति- रिवाज, और परंपराओं की धरोहर हैं, जिसका प्रकाश संपूर्ण आर्यावर्त को समन्वय, साधना, एकता, मेलजोल, भाईचारा, समरसता, सहनशीलता और मानवता से आलोकित करता है। जिस तरह से भारतवर्ष विविधताओं का देश है, उसी तरह से हमारे गांवों में विभिन्न समुदाय,वर्ग, जाति और धर्म के लोग एक साथ व्यवस्थापूर्वक रहते हुए अपना योगदान राष्ट्र के विकास में दे रहे हैं। मानव सृष्टि से अद्यतन धन- धान्य, प्राकृतिक संसाधनों से प्राणियों का पालन – पोषण करते आ रहे हैं। वास्तव में भारत आज भी गांवों का देश है, इसकी सभी प्रकार की स्थितियों की रीढ़ आज भी गांव ही हैं। कोविड – 19 ने इस धारणा को और बल दिया है। कामगारों ने जिन शहरों को अपने खून- पसीने से, बड़ी शिद्दत से बसाया था, वहां अपना पूरा जीवन खपा दिया था, अपने गांव को छोड़कर, अंत में उन शहरों में इनको ठिकाना नहीं मिला और वापस उसी गांव में फिर जीने का सहारा मिला। गगनचुंबी इमारतों में, कंक्रीट के जंगल से बाहर मिट्टी के घर, खपरैल, छप्पर की साए ने अपने लाल को बसेरा ही नही, सभी कुछ देने का यत्न किया। हमारे गांवों में धरती के लाल बसते हैं, जो अपने श्रम से अन्न पैदा करते हैं, जो सभी की क्षुधा शांत करते हैं। देशवासियों की रगों में बहने वाला रक्त यहीं से ऊर्जान्वित होता है। प्रत्येक प्रकार का मूल बीज गांवों की उर्वरा भूमि में ही छिपकर अंकुरित हुआ करता है। जब हम अपने गांवों से दूर होते हैं तो रह – रहकर वहां के बिताए पलों का स्मरण हमें शक्ति प्रदान करता है, हमारे भीतर उत्तेजना पैदा करता है। अपने गांव के माटी की सोधी सुगंध, उसका आंचल हमेशा हमें नवीन स्फूर्ति से आप्लावित करता है।

हम उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल से आते हैं, जो पिछड़ा हुआ क्षेत्र माना जाता है। जिसकी पीड़ा को भारतीय संसद में बड़ी बारीकी से उकेरा था गाजीपुर के तत्कालीन सांसद विश्वनाथ सिंह गहमरी ने, पंडित जवाहर लाल नेहरू सहित पूरी संसद के नेत्र सजल हो उठे थे, सभी वक्ताओं ने अपना समय भी गहमरी साहब को दे दिया था, तत्काल ही पटेल आयोग का गठन हुआ और पूर्वांचल में कई चीनी मिलें व कताई मिलें शुरू हुई, यह अलग बात है कि आज सभी बंद हैं। हम उसके बाद पैदा हुए, लेकिन तब भी कमोवेश गांव वैसे ही थे। उसी समय के व्यथा और प्रचलित शब्दावली को समेटने का प्रयास इस आशय से किया है कि हमारे बच्चे भी उन दुश्वारियों को समझ सकें कि कश्ती को निकाल ले आए हैं कितनी मुश्किल से।

पनघट, पगडंडी, पैड़ा, डगर, खोर, डहर, मेड़ –डांड, हल –जुवाठ, सैल, पैना, हेंगा, नाधा, हरजोत्ता, जाबा, खूंटी, अरगनी, ताखा, भंसार, हर्ष, फार, खोंपी, पचवासी, कुदाल, फावड़ा, खुरपी, खुरपा, टेंगारा, बांकी, बरारी,रसरी, नाथी, खोता, पगहा, गेराव, मोहड़ी, सिंघौटी, खूंटा, मुद्धी, खुंटा, सकरमुद्धी, बैठनी, कूंड–बरहा, बरहा(नाली), चरखी, हौदा, धन्न, उबहन, जगत, मूसर, वोगारब, घिर्री, गगरा, गुलौर, कईन, झुकवा, हंकवा, पकवा, बोझवा, सईका, सईकी, हौदी, गगरी, परयी, पुछिया, कड़ाह–कड़ाही, कोल्हू, कातर, तौला, कूड़ा, कमोरी, रहट, पुरवट, बेड़ी, सैर, घोल, ताल, पोखरा, गड़ही, छान –छप्पर, बाती- छनौती, बन्हन, पाती, सरपत, बेड़ा, कोरो, बड़ेर, खपड़ा, नारियां, करी, अनगब, मोखब, खपरैल, दुआर, दालान, कोसा, कोहा, दवरी, गांज, पैर, खलिहान, अखनी, पांचा, टेडूवा, गोबरहा, लेहना, बोझ, बिसरवार, हलवाह, उपरी –चिपरी, गोइंठी, गोइंठा, करसी, मौनी, मौना, दौरी, दौरा, गोनरी, बिडवा, सिकहुली, सिकहुला, डेहरी, जबरा, चूल्ह, चूल्हा, लगौना, थवना, बोरसी, पोतनहर, भितरही, मझेरिया, लीपना, पोतना, अहरा, जांता, चाकी, कांडी, पहरुआ, सूप, चलनी, अंगिया, झन्ना, अरगनी, सिल– बट्टा, लोढ़ा, पीढ़ा, पीढ़ई, भदेली, भदेला, पतेली, बटुली, हंडा –लोटा, भुजिया, बहुरी, गोजई, जौ–मटरा, सतुआ, पंजीरी आदि अनेक शब्द जो मुझे अभी इससे ज्यादा याद नहीं आ रहे हैं, लेकिन बचपन में गांवों में लोग प्रयोग में लाते थे, सभी का उपयोग समय समय पर होता था। मेरी उत्कट अभिलाषा है कि हमारी यह पीढ़ी जो हमारे बाद की है अपनी विरासत को समझे और जाने की किस तरह से पूर्वजों ने अभाव में भी सदभाव को, समरसता, भाईचारा को कायम रखा। जैसे-जैसे हम भौतिक सुख प्राप्त करने में लीन होते गए हमने अपनी गंवई, देशी और विशुद्ध भारतीय संस्कृति, अल्हड़पन, बेपरवाही सभी को विसारते गए और धन तो अर्जित कर लिए लेकिन हम मूल्य, विश्वास, नैतिकता, अपनत्व, सामूहिकता, सहयोग, सामाजिक समरसता और सदभावना खोते गए या उनमें क्षरण होता गया। वैभव में सुख और आनंद तलाश करने लगे लेकिन वास्तव में इन सबसे कोसों दूर होते गए। अब गांवों में भी चिंता, अवसाद, नैराश्य, कुंठा, तनाव जैसी मानसिक बीमारियां अपना पांव पसार चुकी हैं। बीपी, सुगर सभी अब आम बात हो गई है। ऐसा क्यों हुआ यह विचारणीय है। हम भौतिकता के साधन जुटाने में अपनी सबसे बड़ी धरोहर परिवार और समाज को उपेक्षित करते गए। चौपाल, बाग- बगीचे, ताल- पोखरे कम होते गए, एक ही कुएं से कई परिवार के लोग पानी भरते और पीते थे, जहां प्रायः लोग इकट्ठा हुआ करते थे। आपस में बातचीत होती रहती थी, जो एंटीबॉडी का काम करती थी। अब हम दवाओं से इम्यूनिटी बढ़ा रहे हैं। जहर से जहर काटने का प्रयास हमें मंहगा पड़ रहा है।

यह पढ़ते समय आपको लग रहा होगा कि मैं आधुनिकता का या विकास विरोधी हूं, ऐसा कदापि नहीं है, किंतु अपने स्वास्थ्य से, परिवार से समझौता कर विकास हासिल कर भौतिक सुख तलाशना कहां तक की होशियारी है। हमें यथार्थ में धरातल पर पैर जमीन पर टिका कर रहना होगा। नीचे जमीन से पांव उतना ही ऊपर ले जाए जिससे आसानी से नीचे आ सकें, आकाश की ओर बढ़ें लेकिन उतना ही कि नीचे धड़ाम से धरती पर न आना पड़े। वास्तव में हम सुख और आनंद की तलाश में रहते हैं और इस भ्रम में कि धन आयेगा तो यह चीजें अपने आप आ जायेगी, इसी मुगालते में अंधी दौड़ में भागते हैं, घर, परिवार,नाते – रिश्ते, यार– दोस्त, गांव –ज़वार सभी पीछे छूट जाते हैं और जब हम वापसी की बात सोचते हैं तो देर हो चुकी होती है। फिर क्या न माया मिली न राम,अब क्या होगा जब चिड़िया चुग गई खेत?

इस समय कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। वर्तमान में अपने देश की स्थिति ज्यादा खराब है। पहली बार ऐसा हुआ कि गांव से शहर की ओर के बजाय शहर से गांव की ओर पलायन हुआ। महामारी, लॉकडाउन, पृथकवास, संगरोध, दूरियां, अपनों को खो देने का डर और दर्द ने हमें अंदर से झकझोर दिया है, हम विचलित से हो गए हैं। किंतु इस विषम परिस्थिति में यदि किसी ने हमें सहारा दिया है तो वह है हमारा संपर्क, लगातार अपने मित्रों, रिश्तेदारों से जुड़े रहना, बातचीत करते रहना। उस गांव की ओर, गली, मुहल्ले की ओर रुख करना जहां हमने अपने जीवन की शुरुआत की थी, जहां की धूल भरी, मिट्टी से सनी धरती मां में पल कर बड़े हुए थे, जिसकी सोंधी खुशबू हमारे दिलो- दिमाग पर छाई हुई है। इसी कारण बहुत से लोग अपनी रोजी,व्यवसाय आदि को ताख पर रखकर गांवो में आ गए,अपने मुहल्लों में आ गए। मेरे बचपन के मित्र हैं हाजी अब्दुल समद सिद्दीकी, कटघर मूसा, जलालपुर, अम्बेडकरनगर कहते रहते हैं कि मिलते –जुलते रहिए पता नहीं कब रूखसती का पैगाम आ जाय। इस कोविड काल में यह और ज्यादा समीचीन लग रहा है, लेकिन इतनी निराशा भी नहीं है। बस हमें हिम्मत और धैर्य के साथ चलते जाना है। लगातार अपनों से संपर्क में बने रहना है। सच मानिए कि इस महामारी का सामना करने के लिए सावधानी, दवाई के साथ साथ हौसला भी टूटने नहीं देना है। मानसिक तनाव ने बहुत से लोगों के हौसले को मानों चुनौती दे डाली है। अनेक मामलों में तनाव इस महामारी की गंभीरता को बढ़ा रहा है।यह भी देखने को मिल रहा है कि बिना संक्रमण के भी बहुत से लोगों में यह तनाव शारीरिक कष्ट में तब्दील हो रहा है। मरीज हो या सामान्य आदमी,तनाव सभी के ऑक्सीजन के स्तर को घटा रहा है। ऐसे में हमें अपनों से जुड़े रहना है, बातचीत करते रहना है। सामाजिक दूरी नहीं अपितु भौतिक दूरी को बनाए रखते हुए हाले दिल बयां करते रहना है। इस दौर में बातचीत करते रहना और दूसरों की भी सुनते रहना हमारे मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी है। हमें यह समझना है कि किसी से अपने दिल का हाल कहने का उद्देश्य हमेशा समस्या का समाधान खोजना ही नहीं होता है, बल्कि अपने मन में चल रहे विचारों के तूफान को शांत करना है, जिससे आप बेहतर मानसिक स्थिति में आएं और हल्का महसूस कर सकें। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड ने इसे कैथार्सिस कहा है, मतलब अपनी बात कह देने से मन का बोझ उतर जाता है और व्यक्ति हल्का महसूस करने लगता है। हमें मन की बातों को अपनों से साझा करना चाहिए ताकि हमारा तनाव कम हो सके। जरूरी नहीं कि वे आपके परिवार के सदस्य ही हों, आपके मित्र ,शुभचिंतक भी हो सकते हैं, जिनसे आप खुलकर बिना झिझक के अपने मन की बात कह सकते हैं। इस बावत अपनी बीती यहां बताना उपयुक्त समझ रहा हूं। बात काशी की 1998 की है, मुझे लूज मोशन के साथ बुखार आ गया, मेरा भतीजा दीप नारायण मेरे साथ रहकर लॉ कर रहा था, मेरी धर्मपत्नी ने उससे मेरे लिए दवा मंगवाई, मैंने खा भी लिया अपेक्षित परिणाम नहीं मिला, फिर क्या दीप नारायण ने कहा की अनिल चाचा(डॉ अनिल श्रीवास्तव,अपर शोध अधिकारी,संभागीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण प्रशिक्षण केंद्र, वाराणसी)से बात कर लीजिए अभी तुरंत ठीक हो जाएंगे। वह जानता था कि मेरी उनसे प्रायः बातचीत होती रहती है, फिर मैंने अनिल सर से बात की भी। यह है बातचीत की शक्ति और विश्वास, जो हमारे अंदर सुरक्षा की भावना को बलवती करती है,और हमारी जिजीविषा को बढ़ा देती है। महामारी के इस दौर में या कोई अन्य तनाव या बात जो मुझे परेशान करती है तो सबसे पहला फोन अनिल सर को ही करता हूं, फिर सहयोगी– सुख-दुःख के साथी को, अब तो रोज बात करने का क्रम बन गया है। ठीक ऐसे ही जब यहां कॉलेज के काम से थक या ऊब जाता हूं तो घर(गांव)चल देता हूं। वहां एक रात बिताकर भी तरोताजा हो जाता हूं। कभी कभी संगम तीरे दिनेश बाबू(डा दिनेश सिंह, उप मुख्य चिकित्सा अधिकारी, अपने दामाद)के पास चला जाता हूं। यह शक्ति है बातचीत की अपनों से मिलने की, हाले दिल बयां करते रहने से। किसी से बातचीत करने में आपको एक अंतर्दृष्टि मिलती है, जिससे यह भी समझ में आ जाता है कि सही नजरिया क्या है। बात लंबी हो रही है, फिर कभी। समाप्ति इस निवेदन के साथ कि दुनिया भर से आ रही डरावनी खबरों पर हर वक्त विवेचना करना; बातचीत करना नहीं कहलाएगा, अपितु ये आपकी मानसिक सेहत को और खराब करेगा। इसे एक वस्तुस्थिति की तरह लें और अपनों से बातचीत करते रहें, हालचाल लेते –देते रहें, संपर्क बनाए रहें। अपने दिल की कहते रहें। वृक्ष कितना भी विशाल क्यों न हो, तभी तक हरा –भरा रह सकता है,जब तक जड़ें मजबूत रहेंगी, जड़ों से जुड़ा रहेगा। हम चाहे जहां भी हों लेकिन जड़ों से अर्थात अपने परिवार, गांवों व मोहल्लों से, गलियों से जुड़े रहें।
जोहार प्रकृति!  जोहार धरती मां!

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