संदर्भ— बक्सवाहा का जंगल, संपत्ति या विपत्ति— आशुतोष राना

जन और जीवन की रक्षा के लिए जल, जंगल, ज़मीन का संरक्षण और संवर्धन आवश्यक होता है। इन सभी का रक्षण-संवर्धन जनतंत्र की प्राथमिकता होती है।

किंतु मनुष्य के हृदय में इनके संवर्धन का संकल्प कितना गहरा है इसकी परीक्षा के लिए प्रकृति कई खेल रचती है और वही जाँचने के लिए प्रकृति ने मध्यप्रदेश में बुंदेलखंड स्थित बकस्वाह के विशाल जंगलों में देश के सबसे बड़े हीरा भंडारण का पता दे दिया। अब धर्म संकट यह है की मनुष्य को यदि हीरे चाहिए हैं तो उसे कम से कम दो लाख पंद्रह हज़ार पेड़ों को निर्ममता से काटकर अलग करना होगा।

अब हुई झंझट क्योंकि वृक्षों के बारे में मान्यता है-
“अमृत दे करते विषपान।
वृक्ष स्वयं शंकर भगवान॥”

वृक्ष महादेव शिव की भाँति कार्बन डाई ऑक्सायड रूपी विष को स्वयं सोखकर हमें ऑक्सिजन रूपी अमृत प्रदान करते हैं। महामारी के इस भीषण दौर में ऑक्सिजन ही अमृत है इस तथ्य और सत्य की जानकारी भी हमें अच्छे से हो गयी है, प्राणवायु के महत्व से हम भलीभाँति परिचित हो गए हैं।

ध्यान में रखने योग्य यह की एक पेड़ 230 लीटर ऑक्सिजन एक दिन में वायुमंडल में छोड़ता है, जो सात मनुष्यों को जीवन देने का काम करती है। इसका अर्थ हुआ कि 2 लाख 15 हज़ार पेड़ प्रतिदिन 15 लाख 5 हज़ार व्यक्तियों को प्राणवायु प्रदान करने का काम करते हैं। ( इसमें उन लाखों वन्य पशु-पक्षियों की संख्या नहीं जोड़ी गयी है जिनका जीवन ही जंगल हैं और जो मनुष्य के जैसे ही प्रकृति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।)

अब समस्या यह है की जंगल कटने देते हैं तो शिवसंकल्प जाता है और शिवसंकल्प की रक्षा करते हैं सम्पत्ति जाती है ?

जल, जंगल, ज़मीन के साथ-साथ यदि हम ज़मीर का भी संवर्धन करें तो प्राण भी बचे रहेंगे और प्रतिष्ठा भी, जन भी सुरक्षित रहेगा और जीवन भी।

किसी भी सुशासक के लिए #नग नहीं, #नागरिक महत्वपूर्ण होते हैं, उसके लिए धन से अधिक महत्व जन का होता है, इसलिए वह इस सत्य को सदैव स्मरण रखता है कि हीरे यदि हमें प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं तो वृक्ष हमारे प्राणदाता होते हैं। क्योंकि जब प्राण ही ना बचें तो प्रतिष्ठा का कोई मूल्य नहीं रह जाता। सुशासक जानते हैं कि सम्पत्ति की शान से अधिक महत्वपूर्ण संतति की जान होती है क्योंकि जान है तो जहाँन है और जहाँन ही हमारी शान है।

इसलिए मुझे विश्वास है की मध्यप्रदेश शासन अपनी संवेदनशीलता के चलते हर क़ीमत पर प्रकृति के पक्ष में ही निर्णय लेगा। क्योंकि ‘प्रकृति की लय से लय मिलाकर ना चलना ही प्रलय का कारण होता है।’ शुभम भवतु!

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