विधानसभा चुनाव परिणाम— बहुत कुछ हैं संदेश
नई दिल्ली। पश्चिम बंगाल सहित अन्य राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम साफ हो चुके हैं। इनका अपनी— अपनी विचारधारा के अनुरूप विश्लेषण चल रहा है, लेकिन सचाई यही है कि ये परिणाम बहुत कुछ संदेश दे रहे हैं।
इन परिणामों ने भाजपा नेताओं के साथ ही इसके कार्यकर्ताओं को भी तगडा झटका दिया है। ‘मोदी है तो मुमकिन है’ जैसी प्रचारित छवि वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले गृह मंत्री अमित शाह पता नहीं पश्चिम बंगाल के परिणाम से दुखी होंगे या असम में दोबारा सत्ता में वापसी की खुशी मना रहे होंगे?
इधर ममता बनर्जी के ख़ेमें में जीत का जश्न शुरू हो गया है। केरल में एलडीएफ़ और तमिलनाडु में डीएमके गठबंधन के कार्यकायर्ता भी जश्न की तैयारी में जुटे हैं। भाजपा ने बंगाल में पूरी ताकत झोंक दी थी। इसने अपनी पार्टी और समर्थकों के बीच ये उम्मीद जगा दी थी कि विजय उसी की होगी, उस परिपेक्ष्य में देखें तो पार्टी के बड़े नेताओं के घरों में मायूसी छाई होगी।
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) भारी बहुमत के साथ तीसरी बार सत्ता में वापसी कर ली है। हालांकि, टीएमसी प्रमुख और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपनी सीट नहीं बचा पाईं। भाजपा 200 से ज्यादा सीटें जीतने का दावा करती रही। लेकिन पूरी ताकत झोंकने के बाद भी यह मुमकिन नही हो पाया। भाजपा अपनी हर रैली व सभा में जय श्री राम के नारे पर हुए विवाद को मुद्दा बनाती रही। इस बार तृणमूल भी पीछे नहीं रही। ममता बनर्जी ने पहले सार्वजनिक मंच पर चंडी पाठ किया, फिर अपना गोत्र भी बताया और हरे कृष्ण हरे हरे का नारा दिया। कहा जा रहा था कि बंगाल के हिंदू वोटरों को रिझाने के लिए भजपा का दांव उनके पक्ष में जाएगा, हालांकि ये दाव उल्टा पड़ गया। किसी भरोसेमंद स्थानीय मुख्यमंत्री चेहरे का न होना भी भाजपा के खिलाफ गया है। बंगाल के लोगों के लिए बनर्जी हमेशा से मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर एक ज़्यादा स्वीकार्य चेहरा रही हैं। भाजपा ने पूरा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही लड़ा।
भाजपा ने दूसरे दलों में सेंधमारी शुरू की और सत्ताधारी दल के कई बड़े नेताओं को अपने पाले में मिला लिया। इनमें सबसे बड़ा नाम सुवेंदु अधिकारी का माना जाता है जो ममता बनर्जी के करीबी सहयोगी रहे लगातार दो साल सत्ता में बने रहने के बाद ममता सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी जो लहर चल रही थी, उसे भाजपा पूरी तरह भुनाने में नाकामयाब रही। टिकट बंटवारे साथ ही बंगाल भाजपा में असंतोष की खबरें आईं और कई जगह भाजपा के दफ्तर में तोडफ़ोड़ भी हुई। जिसके बाद कई बार संशोधन भी करना पड़ा।
इस बार भाजपा को उनके मौन मतदाताओं का साथ नहीं मिल पाया। बिहार चुनाव विधानसभा के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की महिलाओं को बीजेपी का साइलेंट मतदाता बताया था। हालांकि, बंगाल में पार्टी के इस वोटबैंक ने उनका साथ नहीं दिया। इसका कारण पीएम का ममता को बार-बार दीदी ओ दीदी कहकर संबोधित करना महिलाओं को पसंद नहीं आया। मोदी ने ‘दीदी ओ दीदी…कितना भरोसा किया था बंगाल के लोगों ने आप पर’, जैसे जुमले मज़े लेकर कहे। लेकिन इस परिणाम को देखने का एक दृष्टिकोण यह भी है कि 2016 के विधानसभा चुनाव में केवल तीन सीटों पर जीत के बाद इस बार इतनी भारी संख्या में सीटों में बढ़त पार्टी के लिए एक गर्व की बात होगी। ऐसा लगता है कि अब पार्टी के हारे नेता इसी पहलू पर ज़ोर देंगेंं।
चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में चुनावों के नतीजों के पुख़्ता रुझान से कुछ बातें साफ़ होती दिखाई देती हैं। बंगाल के नतीजों से मुख्यमंत्री की ‘फ़ाइटर’ की छवि और ही पुख़्ता होती है। उनके सामने सियासी करियर की सबसे बड़ी चुनौती थी जिसमें वो खरी उतरीं। उनके कुछ साथी उन्हें छोड़कर बीजेपी में शामिल ज़रूर हो गए लेकिन उनके वोटरों ने उनका साथ नहीं छोड़ा। इस चुनाव से साफ़ हो गया है कि उनके समर्थकों और वोटरों ने उन पर अपना विश्वास बनाये रखा है।नंदीग्राम में एक छोटी सी घटना के दौरान ममता बनर्जी के पैर में चोट आयी जिसके बाद उन्होंने अपने पैर पर कई दिनों तक प्लास्टर चढ़ाए रखा और चुनाव प्रचार व्हीलचेयर पर किया।
कांग्रेस का पतन जारी
बंगाल में कांग्रेस पार्टी और वामपंथी मोर्चे ने मिलकर चुनाव लड़ा, लेकिन पिछले दो चुनाव की तुलना में कांग्रेस का और बुरा हाल हुआ। केरल में यूडीएफ़ का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस के लिए सत्ता में आना ज़रूरी समझा जा रहा था। चुनावी मुहिम के दौरान कांग्रेस के कुछ नेताओं ने कहा था कि जीत उनकी पुख़्ता है क्योंकि सत्तारूढ़ एलडीएफ़ भ्रष्टाचार के कई गंभीर आरोपों में घिरा था। लेकिन उस समय कई विशेषज्ञों ने एलडीएफ़ की जीत की साफ़ भविष्यवाणी की थी और कहा था कि अगर कांग्रेस हारी तो राज्य में पार्टी के कई नेताओं का दूसरी पार्टियों में पलायन होगा। कांग्रेस को हार इसलिए भी भारी पड़ेगी क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव में गठंधन ने केरल की 20 सीटों में से 19 सीटें जीती थीं। पार्टी ने तमिलनाडु में डीएमके से गठबंधन करके उस राज्य में सत्ता में आने का रास्ता खोला ज़रूर है लेकिन केवल एक जूनियर पार्टनर की हैसियत से। पुडुचेरी में भी पार्टी को धक्का लगा और उसका सत्ता में लौटने का सपना अधूरा रह गया। असम में इसे एक बार फिर पाँच साल के लिए विपक्ष में बैठना पड़ेगा।