अलौकिक और अद्भुत है, सोहागपुर का रामनामी अक्षय वट वृक्ष

—नीलम तिवारी—
सोहागपुर—होशंगाबाद। अपने भक्त बाणासुर की भक्ति से प्रसन्न होकर स्वयंभू भगवान शंकर ने स्वयं जिस नगरी के अध्यक्ष बन कर सपरिवार और गणों सहित जहां निवास किया हो, जगत के पालनहार भगवान विष्णु रूपी श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध की जो सुसराल रही हो तथा द्वापर युग में जिस श्रोणितपुरी सोहागपुर से त्रैलोक्य का राज्य संचालित होता रहा हो, अंतरिक्ष में स्थापित रही ऐसी सिद्ध नगरी की महिमा आखिर कौन और कैसे बखान सकता है? शिवपुराण सहित अनेक धार्मिक ग्रंथों में श्रोणितपुरी सोहागपुर का कई कथाओं में उल्लेख है।

आज भी मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में स्थित इस सोहागपुर का कण— कण सिद्ध है। इसका साक्षात प्रमाण है, उत्तरवाहिनी होती पलकमति और सूखा के संगम पर स्थित सिद्ध महाराज का वह अलौकिक अक्षय वट वृक्ष मंदिर। इस वट वृक्ष को रामनामी वट वृक्ष बनाने नागा बाबा श्री श्री 1008 महात्मा काशी गिरी महाराज जी की अहम भूमिका रही है। इनकी आयु का अनुमान इस वटवृक्ष की तरह लगाना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है। महात्मा जी ने इस वट वृक्ष की जड़ों से समूचे वट वृक्ष पर 108 राम नाम लिखें है। जड़ों का ही मंदिर, जड़ों की ही परिक्रमा, जड़ों का ही प्राकृत्य परकोटा और शीर्ष पर ध्यान के लिए बनाई गई जड़ों की ही आसनी। इसके नीचे विराजमान हैं स्वयंभू भगवान शंकर और नंदीश्वर महाराज तथा तीनों लोक— धरती, आकाश और पाताल।

अनादि काल से ही यह स्थान सोहागपुर वासियों के लिए आस्था का बड़ा केंद्र रहा है। बताते हैं कई बार यह अक्षय वृक्ष सूखा और कई बार हरियाया है । यहां पर आने वाले हर भक्त की सभी उचित मनोकामनाएं पलकमति की तरह पलक झपकते ही पूरी होती हैं। इसकी अनुभूति उनके अलावा किसी और को हो भी नहीं सकती, जिन्होने स्वयं अनुभव किया है। फिलहाल तो आस्था वालों के लिए यही बहुत बड़ी बात है कि सिद्ध महाराज के दर्शन कर लेना अर्थात सब कुछ पा जाना होता है। श्रद्धालुओं को भरोसा है कि यहां मांगी हुई मान्यताएं भी कभी निष्फल नहीं होती। श्रद्धा और विश्वास होना चाहिए, जो मांगो वही मिलता है। यहां बढ़ता हुआ आस्था का हुजूम इसका स्पष्ट प्रमाण भी है। यह स्थान पलकमती नदी के किनारे सोहागपुर नगर से ही लगा हुआ है।

उल्लेखनीय है और शिवपुराण के मुताबिक भी भगवान शंकर और भगवान श्री कृष्ण का यहां पर परस्पर युद्ध भी हुआ था और भगवान शंकर की प्रेरणा से ही श्री कृष्ण जी ने अपने पोते अनिरुद्ध के राजकुमारी उषा के कारण चित्रलेखा द्वारा किए गए अपहरण के बाद सोहागपुर पहुंचकर सहस्त्रबाहु बाणासुर की हजार भुजाओं को काटा था। बाणासुर युद्धोन्मादी हो चुका था और भगवान शंकर से ही यह कहते हुए युद्ध करने के लिए तत्पर था कि आपने मुझे हजार भुजाएं दी है तो तीनों लोकों में कोई मुझसे लड़ता ही नहीं। परिणामतः भगवान शंकर उसकी युद्ध पिपासा समझ गए और पूरी करने का वचन देते हुए उससे कहा था कि जिस दिन तेरे शस्त्रागार का ध्वज गिर जाएगा उस दिन समझ लेना युद्ध तेरे दरवाजे पर खड़ा है। जब उनकी प्रेरणा से भगवान श्री कृष्ण बाणासुर से युद्ध करने सोहागपुर पहुंचे तो भक्तवत्सल भगवान शंकर ने श्री कृष्ण से युद्ध भी किया। तब भगवान श्री कृष्ण ने शंकर जी से निवेदन किया कि भगवान मैं तो आप ही की प्रेरणा से ऐसा कर रहा हूं। तब उन्होंने कहा कि तुम जम्भ्राणास्त्र का प्रयोग करो। तब कहीं जाकर भगवान शंकर अपने ही बताए हुए उक्त शस्त्र से सेना सहित जम्भित हुए और तब श्री कृष्ण सहस्रबाहु की भुजाएं काट पाए। भगवान शंकर के आदेश से चार भुजाएं छोड़ कर उसे जीवित छोड़ा। बाद में भगवान शंकर के आशीर्वाद और आदेश से क्षमा मांगते हुए बाणासुर ने अपनी बेटी उषा का विवाह कृष्ण के पोते अनिरुद्ध से किया। कुछ काल तक भगवान कृष्ण बाणासुर के निवेदन पर यहां पर रहे और बाद में उन्हें दान दहेज सहित विदा किया गया। इस बात का उल्लेख साफ तौर पर श्री शिव पुराण में किया गया है।

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