उच्चतम न्यायालय— मजिस्ट्रेट और ट्रायल जजों पर नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी

नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने निचली अदालतों की भूमिका पर जोर देते हुए आपराधिक अदालत प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के बारे में कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के समान ही मजिस्ट्रेट और ट्रायल जजों की भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी है। पीठ ने कहा कि यह एक ऐसा मामला है, जिसे इस अदालत तक पहुंचने की अनुमति नहीं देनी चाहिए और मजिस्ट्रेट के उस आदेश को रद्द किया, जिसमें मजिस्ट्रेट ने गैर-संज्ञेय रिपोर्ट दर्ज होने के छह साल बाद उसी घटना के संबंध में उसी आरोपी के खिलाफ दर्ज की गई शिकायत की प्रक्रिया शुरू की गई थी।

उच्चतम न्यायालय ने कहा कि निजी शिकायत प्राप्त होने पर मजिस्ट्रेट को सबसे पहले जांच करनी चाहिए कि क्या निजी शिकायत में लगाए गए आरोप, अन्य बातों के साथ, तुच्छ मुकदमेबाजी का उदाहरण तो नहीं ; और उसके बाद, शिकायतकर्ता के मामले का समर्थन करने वाले सबूतों की जांच करना और उसे इकट्ठा करना चाहिए। भारतीय संविधान और सीआरपीसी के तहत ट्रायल जज का कर्तव्य है, प्रारंभिक अवस्था में तुच्छ मुकदमेबाजी की पहचान करना और उसका निपटारा करना, पर्याप्त रूप से ट्रायल कोर्ट इसके लिए शक्तियां और अधिकार प्राप्त हैं। पीठ ने कहा कि, “इस तरह के मामलों में अन्याय को रोकने में ट्रायल कोर्ट और मजिस्ट्रेट की महत्वपूर्ण भूमिका है। वे आपराधिक न्याय प्रणाली की अखंडता, और पीड़ित और व्याकुल वादियों की रक्षा की पहली पंक्ति हैं। हम इस बात पर विचार कर रहे हैं कि ट्रायल कोर्ट के पास ट्रायल के बाद आरोपी व्यक्ति को न केवल बरी या दोषी ठहराने का फैसला करने की शक्ति है। इसके साथ ही फिट मामलों में आरोपी को डिस्चार्ज करने की शक्ति है और ट्रायल के चरण तक पहुंचने से पहले ही तुच्छ मुकदमों को खत्म करने का भी कर्तव्य है। यह न केवल लोगों के धन की बचत होगी और इसके साथ ही न्यायिक समय को बचाएगा, बल्कि स्वतंत्रता के अधिकार की भी रक्षा करेगा जो कि प्रत्येक व्यक्ति भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हकदार हैं। इस संदर्भ में, सर्वोच्च न्यायालय के समान ही मजिस्ट्रेट और ट्रायल जजों की भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी है।”

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