भारत की विकास यात्रा: विकास, अवसंरचना और आर्थिक चुनौतियों का सामना
गणतंत्र पर्व पर विेशेष
—सृष्टि चौबे
स्वतंत्रता से पहले का भारत, विशेष रूप से 19वीं और 20वीं शताब्दी के अंत में, महत्वपूर्ण सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तनों का गवाह बना। यह अवधि स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखती है और देश के भविष्य के विकास, कार्य के अवसरों, अर्थव्यवस्था और भ्रष्टाचार को आकार देती है।
इस समय, भारत ब्रिटिश उपनिवेशी शासन के अधीन था, जिसका अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा। ब्रिटिशों ने ऐसे नीतियों को लागू किया जो उनके अपने आर्थिक हितों को प्राथमिकता देती थीं, जिसके परिणामस्वरूप भारत में उद्योगों का अविकास हुआ। पारंपरिक उद्योग, जैसे कि वस्त्र उद्योग, सस्ते ब्रिटिश सामानों के आगमन से कमजोर हो गए, जिससे कारीगरों और श्रमिकों के बीच व्यापक बेरोजगारी और गरीबी पैदा हुई। इस आर्थिक शोषण ने स्थानीय शिल्पकला में महत्वपूर्ण गिरावट और आयातित वस्तुओं पर निर्भरता बढ़ा दी।
नए आर्थिक वर्ग का उदय
हालांकि, इन चुनौतियों के बावजूद, इस अवधि में एक नए आर्थिक वर्ग का उदय हुआ, विशेष रूप से शिक्षित भारतीयों का, जिन्होंने बेहतर कार्य के अवसरों की तलाश शुरू की। ब्रिटिश शैक्षिक संस्थानों की स्थापना ने एक मध्यवर्ग का उदय किया, जो राजनीतिक अधिकारों और सामाजिक मुद्दों के प्रति जागरूक होता गया। यह शिक्षित वर्ग स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, सुधारों और अधिक प्रतिनिधित्व की मांग करता है।
हालांकि, यह युग भ्रष्टाचार से भी प्रभावित था, जो उपनिवेशी प्रशासन में व्याप्त था और शासन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करता था। ब्रिटिश प्रशासन में भ्रष्टाचार अक्सर प्रभावी नीति कार्यान्वयन और संसाधनों के आवंटन में बाधा डालता था, जिससे भारतीय जनता के सामने सामाजिक-आर्थिक मुद्दे और बढ़ गए। इस भ्रष्टाचार के माहौल ने जनसाधारण में असंतोष और निराशा को बढ़ावा दिया, जो स्वतंत्रता की बढ़ती मांग में योगदान देता है।
सामाजिक आंदोलन
19वीं और 20वीं शताब्दी के अंत में कई महत्वपूर्ण सामाजिक आंदोलनों का भी उदय हुआ, जो भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं में सुधार के लिए प्रयासरत थे। राजा राम मोहन राय जैसे नेताओं और बाद में महात्मा गांधी जैसे व्यक्तियों ने सामाजिक न्याय, शिक्षा और हाशिए पर पड़े समुदायों के उत्थान के महत्व पर जोर दिया। ये आंदोलन न केवल सामाजिक मुद्दों को संबोधित करते थे, बल्कि उपनिवेशी शासन के खिलाफ एकजुटता की नींव भी रखते थे।
संक्षेप में, स्वतंत्रता से पहले का युग आर्थिक शोषण, सामाजिक जागरूकता और राजनीतिक संघर्ष का एक जटिल ताना-बाना था। इस अवधि में सामना की गई चुनौतियाँ भारत के भविष्य के विकास की दिशा को आकार देने में महत्वपूर्ण थीं, जो आज भी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई और समृद्ध भविष्य के निर्माण में मदद कर रही हैं।
औद्योगिक विकास में वृद्धि
आज का भारत विकास, बुनियादी ढांचे और अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण प्रगति कर चुका है, जो एक गतिशील परिदृश्य को प्रदर्शित करता है जो लगातार विकसित हो रहा है। विकास के संदर्भ में, भारत ने तेजी से शहरीकरण और विभिन्न क्षेत्रों में वृद्धि देखी है। सरकार ने “मेक इन इंडिया” और “डिजिटल इंडिया” जैसे पहलों की शुरुआत की है, जिसका उद्देश्य विनिर्माण और डिजिटल बुनियादी ढांचे को बढ़ावा देना है। उदाहरण के लिए, दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारे की स्थापना से औद्योगिक विकास में वृद्धि होने और लाखों नौकरियों का सृजन होने की उम्मीद है।
बुनियादी ढांचे में सुधार
बुनियादी ढांचे में भी महत्वपूर्ण सुधार हुआ है, विशेष रूप से परिवहन के क्षेत्र में। भारत के राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI) ने सड़क नेटवर्क को विस्तारित और उन्नत करने पर काम किया है, जिसमें भारतमाला परियोजना पर ध्यान केंद्रित किया गया है, जिसका उद्देश्य 2022 तक लगभग 83,677 किमी राजमार्गों का विकास करना है। यह परियोजना कनेक्टिविटी को बढ़ाने और व्यापार को सुविधाजनक बनाने के लिए महत्वपूर्ण है।
कार्य के अवसरों में विविधता
कार्य के अवसरों में विविधता आई है, विशेष रूप से आईटी और सेवा क्षेत्रों की वृद्धि के साथ। श्रम और रोजगार मंत्रालय के अनुसार, औपचारिक क्षेत्र में नौकरी सृजन में वृद्धि हुई है, जिसमें हाल के वर्षों में लाखों नौकरियाँ जोड़ी गई हैं। स्टार्टअप्स और गिग अर्थव्यवस्था के उदय ने भी नए रोजगार के अवसरों में योगदान दिया है।
आर्थिक रूप से, भारत ने महंगाई और अपस्फीति दरों में उतार-चढ़ाव का अनुभव किया है। 2023 तक, महंगाई दर लगभग 6-7% के आसपास रही है, जो खाद्य कीमतों और वैश्विक तेल कीमतों जैसे कारकों से प्रभावित है। भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) इन दरों का सक्रिय रूप से प्रबंधन कर रहा है।
भविष्य के लिए महत्वपूर्ण जोखिम
विकास और पर्यावरणीय क्षय के बीच चल रहा संघर्ष हमारे भविष्य के लिए महत्वपूर्ण जोखिम प्रस्तुत करता है। अनुसंधान से पता चलता है कि यदि वर्तमान रुझान जारी रहते हैं, तो परिणाम विनाशकारी होंगे।
अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन पैनल (आईपीसीसी) द्वारा किए गए एक अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में महत्वपूर्ण कमी के बिना, वैश्विक तापमान 2030 तक उद्योगपूर्व स्तर से 1.5°C तक बढ़ सकता है। इससे अधिक चरम मौसम की घटनाएं होंगी, जिनमें सूखा, बाढ़ और गर्मी की लहरें शामिल हैं, जो हमारे सामने आने वाली चुनौतियों को और बढ़ा देंगी।
इसके अलावा, वर्ल्ड रिसोर्सेज़ इंस्टीट्यूट (डब्ल्यूआरआई) ने बताया है कि कृषि विस्तार और शहरी विकास से प्रेरित वनस्पतिवृक्षों के कटाव से 2100 तक 1.2 मिलियन प्रजातियों का नुकसान हो सकता है। जैव विविधता के इस नुकसान से पारिस्थितिक तंत्र और उनके द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाएं बाधित होंगी, जैसे कि स्वच्छ हवा और पानी, जो मानव जीवन के लिए आवश्यक हैं।
इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रदूषण के स्तर, विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में, तत्काल कार्रवाई नहीं करने पर बढ़ने की उम्मीद है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2040 तक, शहरों में रहने वाले लोगों की संख्या 2.5 अरब तक बढ़ सकती है, जिससे कचरा उत्पादन और वायु प्रदूषण में भी वृद्धि होगी। इससे सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट पैदा हो सकता है, जिसमें लाखों लोग श्वसन रोग और अन्य प्रदूषण से संबंधित स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हो सकते हैं।
सारांश में, अनुसंधान इस बात पर जोर देता है कि हमें अपने विकास लक्ष्यों को पर्यावरणीय प्रभावों के साथ सुलझाने की आवश्यकता है। यदि हम अपने वर्तमान मार्ग पर चलते रहते हैं, तो भविष्य जलवायु अस्थिरता, जैव विविधता के नुकसान और सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौतियों से चिह्नित होगा। यह महत्वपूर्ण है कि हम स्थायी प्रथाओं को अपनाएं जो प्रगति और हमारे ग्रह की सुरक्षा को आने वाली पीढ़ियों के लिए सुनिश्चित करें।
(लेखिका दृश्य और श्रव्य माध्यमों में सक्रिय हैं तथा विभिन्न विषयों पर स्वतंत्र रूप से लेखन करती हैं।)