जमीर
कविता— राकेश मेहरा(लकी)
ऐसे कब जागता है
किसी इंसान का जमीर।
झकझोरना पडता है उसके ईमान को,
मारना पडते हैं छींटे धर्म के,
चीत्कार करना होता है सत्य का कानों में,
अगर ना जागे फिर भी इंसान,
तव दिखाना पडता है बंद आंखों में ही,
किसी अपनों पर हुआ अत्याचार,
बेबस लाचार मासूम पर,
कहर बरपाता वो व्याभिचार,
मानवता को शर्मसार करने वाला
स्त्री पर होता वो दुराचार,
अबोध मासूमों पर अनाथ होने का
चलता शरीर भी लाश होने का,
भूख से तडपते गरीब होने का,
वो दर्द जो जानवर भी न सह सके,
जिसे जल्लादों के बीच इंसान सह सके,
ऐंसी तस्वीर दिखानी होती है,
सच्चाई से बंद हुई आंखों में,
या उसे ही ले जाना होता है
उन दुराचारों में,
जहां ईमान, धर्म बिकता है,
कोंडियों के दामों पर,
जहां कभी रोक ही नहीं लगती
आम आदमी के अत्याचारों पर,
या अपने ही जिगर के टुकडों का
चीखता चिल्लाता हुआ खून,
जिसे सुनकर मुर्दे के अंदर भी
जाग जाये हौसलों का जुनून,
तव कहीं भी नहीं दिखता,
ना कोई गरीब न अमीर,
ऐंसे ही नहीं जागता,
सोये आदमी का जमीर।
-राकेश मेहरा(लकी)
मो—6262883729