गुरुजी पुण्य स्मरण— सनातन संस्कृति साकार थी गुरुजी चित्रकूट में
आज पुण्य तिथि— वैशाख शुक्ल पंचमी: कर्मकाण्ड भास्कर चित्रकूट वाले गुरुजी आचार्य रामचंद्र जी त्रिपाठी
ब्रिटेन द्वारा शासित भारत से भोपाल नबाबी का थ्अलग ही माहौल था। 15 अगस्त 1947 को तत्कालीन ब्रिटिश भारत स्वतंत्र हो गया था, लेकिन भोपाल स्टेट में नबाबी शासन जारी था। ऐसे में वर्तमान मध्यप्रदेश के रायसेन, भोपाल और सीहोर जिलों में भारतीय संस्कृति और संस्कृत की चर्चा भी अपराध था।
इन विषम स्थितियों में ब्रह्मलीन गुरुजी वापोली वाले सच्चिदानंदघन ने घोर तपस्या के उपरांत वापोली में सारासार संस्कृत पाठशाला, वाप्यालय की स्थापना की। इसके लिए उन्होने देशभर के चुनिंदा संस्कृत विद्वानों का चयन किया। इनमे अग्रणी थे, आचार्य रामचंद्र त्रिपाठी। मई 1949 में कई विषयों के प्रकाण्ड विद्वान का संयोगवश मध्यप्रदेश के रायसेन जिले के ऐतिहासिक स्थल जामगढ में पदार्पण हुआ और यहां के लोगों के आग्रह और प्रेम के वशीभूत होकर यहीं के हो गए तथा कालान्तर में चित्रकूट वाले गुरुजी के रूप में पूजित हुए। उनके सानिध्य में श्री ऋषीश्वर संस्कृत पाठशाला की नींव रखी गई, जिसने संस्कृति और संस्कृत के प्रचार—प्रसार में अद्वितीय भूमिका निभाई। इसमें स्व पंडित जादोराम पटेल, स्व पंडित विजयराम पटेल, स्व बालाराम पटेल, स्व शंकरलाल पटेल मातावारे और पंडित नंदकिशोर पचौरी सहित कई लोग सहभागी बने।
इस संस्कृत पाठशाला के प्रारंभिक शिष्यों में स्व पंडित रमेशचंद्र पटेल, स्व पंडित पुरुषोत्तम नारायण याज्ञवल्क्य और पंडित रामसेवक सहित पचासों संस्कृत के विद्वान शामिल रहे हैं। इन पंक्तियों के लेखक इस अकिंचन को गुरुजी के विराट व्यक्तित्व का बहुत सालों तक अहसास ही नहीं हुआ। कारण यह रहा कि अबोधावस्था से ही अपनी दादी के साथ मंदिर जाना होता था। गुरुजी आंखें बंद करके ध्यान करते थे तो भगवान और पूजा सामग्री से खिलवाड का अवसर तलाश ही लेते थे। गुरुजी के वात्सल्य में उनकी मीठी डांट के साथ उनकी गोद में खेलने का सौभाग्य भी मिला।
संस्कृति का साकार स्वरूप
पूज्य गुरुजी का व्यक्तित्व इतना विराट रहा है कि उसे समझ पाना असंभव जैसा रहा है। ज्ञान, कर्म और भक्ति की त्रिवेणी के रूप में भारतीय संस्कृति उनमें साकार थी। कर्मकाण्ड भास्कर गुरुजी के बारे में विद्वानों से सुनता रहा हूं और हर बार उनके व्यक्तित्व—कृतित्व के एक नए पक्ष से परिचित हो जाता हूं। धर्मशास्त्र, ज्योतिष और आयुर्वेद उनमें जीवंत थे।
जो गुरुजी से ग्रहण कर पाया
आज गुरूजी की पुण्यतिथि पर विचार कर रहा हूं कि इस अथाह समुद्र से क्या कुछ ले पाया? श्रेष्ठतम गुरुजनों के सानिध्य और पारिवारिक संस्कारों के बीच अपनी विकृत जीवनशैली मुझे हमेशा कचोटती है कि इन आत्मीयों की आत्मा मुझसे कष्ट पाती होगी। यह अलग प्रसंग है, लेकिन जो गुरुजी से यह निकृष्ट ग्रहण कर पाया, उस पर मुझे गर्व है। हमारे धर्मगुरुओ पर आदमी के पद और हैसियत देखकर भेदभाव करने के आक्षेप लगते रहे हैं। कई धर्मों और विचारधाराओं के लोगों के साथ रहता रहा हूं, लेकिन मैने कभी किसी की हैसियत देखकर व्यवहार नहीं किया। समाजवादी और कम्युनिष्ट विचारधारा से जुडे शीर्ष लोगों के साथ भी कभी निकटता रही। ये लोग मेरे समभाव को उनकी विचारधारा से जोडते थे तो मैं विनम्रतापूर्वक कह देता था कि मेरा बचपन ऐसे गुरुजी के सानिध्य में बीता है, जिनके आश्रम में कभी किसी से भेदभाव नहीं होता था। कितने ही ताकतवर व्यक्ति के गलत का मुखर विरोध कर देना शायद बचपन के उन्ही संस्कारों का परिणाम है। सम्भाव, विद्रोह और बिना किसी की परवाह किए अपने काम में जुटे रहने जैसी प्रवृत्तियों के विश्लेषण के मुझे यही सर्वाधिक उपयुक्त कारण लगते हैं।
—याज्ञवल्क्य