किसान आंदोलन- इस प्रवृत्ति पर विचार की आवयकता
लोकतंत्र एक निरन्तर विकसित होने वाली व्यवस्था है और इसकी निरन्तर समीक्षा की आवश्यकता होती है कि कहीं कोई भटकाव तो नहीं आ रहा। यह अपेक्षा सत्तारूढ दलों से अधिक नहीं की जानी चाहिए क्योंकि सत्ता की प्रवृत्ति व्यवस्था को अपने अनुकूल करने की होती है। विश्व इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पडा है, जिनमें एकाधिकार के विरूद्ध जन सामान्य का संघर्ष सफल रहा, लेकिन कुछ समय बाद चेहरा बदलकर वैसी ही व्यवस्था सत्ता पर आसीन हो गई। लोकतंत्र बहुमत प्राप्त दल को सत्ता के संचालन का अधिकार देता है। यह अधिकार कई बार सत्ताधीशों के एकाधिकार में बदलने लगता है। कई बार तो सत्ता को जनता को प्राप्त अधिकार भी खटकने लगते हैं और इन पर भी अंकुश लगाने के प्रयास होते हैं। यह सही है कि लोकतंत्र में निर्णायक शक्ति जनता के हाथों में ही है, लेकिन इस शक्ति के प्रयोग का अवसर चुनाव के समय ही मिल पाता है। दो चुनावों के बीच बहुत समय सत्ता को अपनी मनमानी के लिए मिल रहा होता है।
अब हम लोकतंत्र की आदर्श स्थितियों की चर्चा करें। इसमे प्रत्येक नागरिक अधिकार संपन्न होता है। इसलिए सत्ता से अपेक्षा की जानी चाहिए कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसकी बात सुनी जाएगी और उसके प्रश्नों का समुचित समाधान किया जाएगा। किसी भी चुनाव में जीत किसी एक की होती है, लेकिन मैदान में उतरे अन्य उम्मीदवार- दल भी कम प्रतिशत में सही, जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं। ऐसे में इनकी बात को पूरी तरह नकारना उचित नहीं कहा जा सकता। देश में न्यायालिका सहित ऐसी बहुत सी संवैधानिक संस्थाएं हैं, जो संविधान के प्रकाश में कार्य कर रही होती हैं। ऐसी संस्थाओं- व्यवस्थाओं की स्वायत्तता लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए अनिवार्य है। विधायिका और कार्यपालिका में भिन्न- भिन्न विचारों के लोगों का प्रतिनिधित्व होता है। सत्ता को इन पर अपने निर्णय लादने के स्थान पर विस्तार से विचार-विमर्श करना चाहिए तथा उठाए गए प्रश्नों- शंकाओं का समाधान करते हुए लगभग सामान्य सहमति बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए। प्रेस यानि संचार माध्यम लोकतंत्र में महत्वपूर्ण होते हैं। यह विपक्ष तो नहीं होते, लेकिन तमाम अपवादों के ये अभी भी प्रतिपक्ष जैसी भूमिका निभा रहे होते हैं। इस पक्ष पर भी ध्यान देने की सरकार से अपेक्षा की जाती है। अच्छी सरकार की कल्पना ऐसी सरकार की होती है, जो अपने निर्णयों में सभी पक्षों का समावेश करे और उठाए गए प्रश्नों का समुचित समाधान प्रस्तुत करने को तैयार हो।
देश में किसान आंदोलन की चिंगारी धीरे- धीरे सुलगते हुए शोलों के रूप में बदल चुकी है। हमे याद रखना होगा कि यह देष आज भी खेती पर आश्रित है। गांवों में बसने वाले भारत पर दुनिया के अनुमान इसलिए गडबडा जाते हैं क्योकि खेती और गांव को समझना इन जानकारों के लिए आसान नहीं है। देश के आधार किसानी से जुडे कानूनों से पहले विस्तार से चर्चा आवश्यक थी। इस संबंध में सरकार जितनी जल्दी चेतती, उतना ही अच्छा होता। अभी भी समय है कि सरकार राजहठ पर न अडकर किसानों की समस्याओं और भावनाओं को समझकर निर्णय ले।
-याज्ञवल्क्य
-स.ना. याज्ञवल्क्य-
संपादक
-‘शुभ चौपाल’- संपादकीय- वर्ष-3, अंक-18