फागुन की रातें
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अधरों पर प्रतिबंध देख आंखों ने की बातें।
महक- महक उठती हैं पागल फागुन की रातें।।
एकाकीपन मन का टूटा
महक उठी अमराई।
बहुत दिनों के बाद समय ने
ली मादक अंगड़ाई।
उस सूनी मुंडेर पर कोई काग बोलता होगा।
करती हैं संकेत फागुनी गीतों की थापें।।
सुधियों के अंचल में उभरे
वह आंगन, अल्हड़ बचपन।
वह अबीर- सी धूल गली की
वह घट, वह पनिहारिन।
महुआ की गंधों में विसरी वर्जन की कारा।
एक साथ मिल गईं अचानक कितनी सौगातें।।
– याज्ञवल्क्य
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