विशेष संपादकीय— बढ रही है कालिमा, उजाले हो रहे मद्धम

दीपावली प्रकाश पर्व है। कथाओं और किंवदन्तियों में संदेश एक ही है— उजियारे के प्रति आस्था। कार्तिक मास की अमावस यानि दीपावली की रात अंधेरा चरम पर होता है। ऐसा लगता है कि यह अंधेरा सब कुछ निगल चुका है। ऐसी काली रात में हमारी प्रकाशमयी आस्था ही है, जो नन्हे दीपक के सहारे अंधेरे के विशाल और विकराल साम्राज्य को चुनौती देती है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय का हमारा’ संकल्प क्षीण नहीं हुआ। यदि अंधेरा पूरी तरह नहीं सिमटा तो उजाले को बढाने का मनुष्य का संकल्प भी नहीं हारा है। अंधेरे और उजाले का यह संघर्ष चलता रहा है और चलता रहेगा। दोनो में से किसी ने हार नहीं मानी है। 

सकारात्मकता अच्छा गुण है, इसमे कोई संदेह नहीं है। सकारात्मक दृष्टिकोण के महत्व को कम नहीं आंका जा सकता। यह सब ध्यान में रखते हुए भी वर्तमान में व्याप्त नकारात्मकता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। पूर्णबंदी भले ही समाप्त हो गई हो, लेकिन सात— आठ महीने से कोरोना की विभीषिका कम नहीं हुई है। निम्न—मध्यम वर्ग के लिए यह कठिनतम समय है। कोरोना काल के इस वर्ग के कष्टों को निकट से देखा है और यह कहने में कोई झिझक नहीं कि कोरोना तो चला जाएगा, लेकिन इसके घाव भरने में बहुत समय लगेगा। नकारात्मक इसलिए होना पडता है कि यह वर्ग पूछता है कि सरकार की भारी—भरकम योजनाओं से इसे राहत क्यों नहीं मिल पाई?

लोकतंत्र की लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा घने अंधेरों के बीच जनता के लिए उजाले की आस है। इस लोक कल्याण के उजाले को बार—बार धूमिल होते हुए देख रहे हैं। लोकतंत्र के चारों स्तंभों को इस दृष्टि से भी देखना होता है कि इनका प्रकाश कहां बाधित हो रहा है? यह देखना—समझना भावनाओं को नकारात्मक बना रहा है। सार्वजनिक और निजी जीवन में मर्यादाओं का चीरहरण देख—देखकर स्वयं धृतराष्ट्र हुए जा रहे हैं। बहुत अच्छी—अच्छी बातों के बीच मानना पडता है कि उपलब्धि सब कुछ हो चुकी है और इसका रास्ता जोडतोड एवं धन से जुड चुका है, प्रतिभा और मेहनत ​लज्जित हो रही हैं।
स्थितियां बिलकुल अच्छी नहीं हैं। व्यावहारिक जीवन में सिद्धांत भागते दिखाई देते हैं। तमाम नकारात्मकताओं के बाद भी हम उजियारे के प्रति आस्था जताते हैं और बनाए रखेंगे। लेकिन यह भी कहना चाहेंगे कि अंधेरे बहुत अधिक प्रभावी हो चुके हैं। नन्हे दीपों का प्रकाश भी इन्हे सहन नहीं हो रहा। यह दीप से दीप जलाने का चुनौतीपूर्ण समय है। निवेदन करना चाहूंगा कि स्वयं प्रकाश के वाहक बनें और अपने आसपास किसी नन्हे दीप को व्यवस्थाओं के अंधकार के बीच टिमटिमाते देखें तो उसे अपनी हथेली की ओट अवश्य दें। यही हमारे प्रकाशधर्मी होने का प्रमाण है।
ज्योति पर्व की हार्दिेेेेक शुभकामनाएंं।
—याज्ञवल्क्य
(स.ना.याज्ञवल्क्य)
संपादक
     शुभ चौपाल
वर्ष—3, अंक—14

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